Kaikeyi Ka Anutap By MaithilySharan Gupt In Hindi Full Kavita With Explanation

कैकेयी का अनुताप मैथिली शरणगुप्त के द्वारा रचित के Hindi Lyrics


Hello To Everyone,Today We Are Going To Tell Kaikeyi Ka Anutap Class 12 Poem(कैकेयी का अनुताप , मैथिलीशरण गुप्त)A Great Poet Poetry Which Was National Poet And His Poetry Is Kaikeyi Ka Anutap Saket Hindi Lyrics. As Will We Are Headed About Ramayan And Ram,Kaikeyi Was Second Wife Of Dashrath And Most Loved Ram's Mother.She Was Very Clever And Strong Women.Once Upon A Time, She Saved Life Of His Husband,Dasrath.So Dashrath Gave Her Two Promise And Kaikeyi Was No Idea What She Want So She Kept Her Promises And Ask To After Time.
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There Was A Time When Ram Bharat Lakshan And Shatrughn Young.The King Dashrath And His Cabinet Decided To Gave The Honor Of King To Ram. When Kaikeyi Was Headed By Manthra She Was Angry And Selfish By Manthra.She Wanted To Her Promise As Ram Went To Vanvas And Bharat  Have King Of Ayodhya.
After A Time She Realized That What She Did Was Totally Wrong Then She Came To Ram And Tell Her Felling And National Poet Maithilisharan Gupt Kept Her Words Into A Poetry Which कैकेयी का अनुताप :- मैथिलीशरण गुप्त

कैकेयी का अनुताप मैथिली शरणगुप्त के द्वारा रचित के Hindi Lyrics

कैकेयी कहती है कि,

यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को।”
चौंके सब सुनकर अटल कैकेयी स्वर को।
बैठी थी अचल तदापि असंख्यतरंगा,
वह सिन्हनी अब थी हहा गोमुखी गंगा।
“हाँ, जानकर भी मैंने न भरत को जाना,
सब सुनलें तुमने स्वयम अभी यह माना।
यह सच है तो घर लौट चलो तुम भैय्या,
अपराधिन मैं हूँ तात्, तुम्हारी मैय्या।”
“यदि मैं उकसाई गयी भरत से होऊं,
तो पति समान ही स्वयं पुत्र मैं खोऊँ।
ठहरो, मत रोको मुझे, कहूँ सो सुन लो,
पाओ यदि उसमे सार, उसे सब चुन लो।
करके पहाड़ सा पाप मौन रह जाऊं?
राई भर भी अनुताप न करने पाऊं?”
उल्का-सी रानी दिशा दीप्त करती थी,
सबमे भय, विस्मय और खेद भरती थी।
“क्या कर सकती थी मरी मंथरा दासी,
मेरा मन ही रह सका ना निज विश्वासी।
जल पंजर-गत अब अधीर, अभागे,
ये ज्वलित भाव थे स्वयं तुझे में जागे।
थूके, मुझपर त्रैलोक्य, भले ही थूके,
जो कोई जो कह सके, कहे क्यूँ चुके?
छीने न मातृपद भरत का मुझसे,
हे राम, दुहाई करूँ और क्या तुझसे?
युग योग तक चलती रहे कठोर कहानी-
‘रघुकुल में भी थी एक अभागिन रानी।’
निज जन्म-जन्म में सुने जीव यह मेरा-
‘धिक्कार, उसे था महा स्वार्थ ने घेरा’।”
“सह सकती हूँ चिरनरक, सुनें सुविचारी,
पर मुझे स्वर्ग की दया, दंड से भारी।
लेकर अपना यह कुलिश कठोर कलेजा,
मैंने इसके ही लिए तुम्हे नरक भेजा।
घर चलो इसी के लिए, न रूठो अब यों,
कुछ और कहूँ तो उसे सुनेंगे सब क्यों?
मुझको यह प्यारा और इसे तुम प्यारे,
मेरे दुगने प्रिये, रहो न मुझसे न्यारे।
तुम भ्राताओं का प्रेम परस्पर जैसा,
यदि वह सब पर प्रगट हुआ है वैसा,
तो पाप-दोष भी पुण्य-तोष है मेरा,
मैं रहूँ पंकिला, पद्म-कोष है मेरा।
छल किया भाग्य ने मुझसे अयाश देने का,
बल दिया उसीने भूल मान लेने का।
अब कटी सभी वह पपाश नाश के प्रेरे
मैं वही कैकयी, वाही राम तुम मेरे।
जीवन नाटक का अंत कठिन है मेरा,
प्रस्ताव मात्र में ही जहाँ अधैर्य अँधेरा।
अनुशासन ही था मुझे अभी तक आता,
करती है तुमसे विनय, आज यह माता-
हो तुम्ही भरत के राज्य, स्वराज्य संभालो,
मैं पाल सकी न स्वयं धर्म, उसे तुम पालो,
स्वामी के जीते-जी न दे सकी सुख मैं,
मरकर तो उनको दिखा सकूँ यह मुख मैं।”




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